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त्वद् विश्वा॑ सुभग॒ सौभ॑गा॒न्यग्ने॒ वि य॑न्ति व॒निनो॒ न व॒याः। श्रु॒ष्टी र॒यिर्वाजो॑ वृत्र॒तूर्ये॑ दि॒वो वृ॒ष्टिरीड्यो॑ री॒तिर॒पाम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvad viśvā subhaga saubhagāny agne vi yanti vanino na vayāḥ | śruṣṭī rayir vājo vṛtratūrye divo vṛṣṭir īḍyo rītir apām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वत्। विश्वा॑। सु॒ऽभ॒ग॒। सौभ॑गानि। अग्ने॑। वि। य॒न्ति॒। व॒निनः॑। न। व॒याः। श्रु॒ष्टी। र॒यिः। वाजः॑। वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑। दि॒वः। वृ॒ष्टिः। ईड्यः॑। री॒तिः। अ॒पाम् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:13» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा से क्या प्राप्त होता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुभग) सुन्दर ऐश्वर्य्यवाले (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्वज्जन वा राजन् ! (वनिनः) वनसम्बन्धी (वयाः) पक्षी (न) जैसे वैसे जन (त्वत्) आप से (विश्वा) सम्पूर्ण (सौभगानि) ऐश्वर्यों के भावों को (वि, यन्ति) विशेष कर प्राप्त होते हैं (वृत्रतूर्य्ये) मेघ का हनन जिसमें उसके सदृश वर्त्तमान संग्राम में (दिवः) अन्तरिक्ष से (अपाम्) जलों की (वृष्टिः) वृष्टि के सदृश (रीतिः) श्लिष्ट जानने वा प्रकाश करानेवाला (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (रयिः) धन और (वाजः) अन्न (श्रुष्टी) शीघ्र प्राप्त होते हैं, इससे आप सत्कार करने योग्य हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अन्तरिक्ष से वृष्टि करके सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करता है, वैसे ही राजा न्याय से युक्त पुरुषार्थ से ऐश्वर्य्यों को बढ़ा कर प्रजाओं को निरन्तर तृप्त करे ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्नृपात् किं प्राप्नोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे सुभगाऽग्ने राजन् ! वनिनो वया न जनास्त्वद्विश्वा सौभगानि वि यन्ति वृत्रतूर्य्ये दिवोऽपां वृष्टिरिव रीतिरीड्यो रयिर्वाजश्च श्रुष्टी यन्ति तस्माद्भवान्त्सत्कर्त्तव्यो भवति ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वत्) (विश्वा) सर्वाणि (सुभग) शोभनैश्वर्य्य (सौभगानि) सुभगानामैश्वर्य्याणां भावान् (अग्ने) वह्निरिव विद्वन् (वि) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (वनिनः) वनसम्बन्धिनः (न) इव (वयाः) पक्षिणः (श्रुष्टी) क्षिप्रम्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रयिः) धनम् (वाजः) अन्नम् (वृत्रतूर्य्ये) वृत्रस्यमेघस्य तूर्य्यं हननं यत्र तद्वद्वर्त्तमाने सङ्ग्रामे (दिवः) अन्तरिक्षात् (वृष्टिः) (ईड्यः) स्तोतुमर्हः (रीतिः) श्लिष्टो गन्ता गमयिता वा (अपाम्) जलानाम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्तरिक्षाद् वृष्टिं कृत्वा सर्वं जगत् तर्पयति तथैव राजा न्याययुक्तात्पुरुषार्थादैश्वर्याणि वर्धयित्वा प्रजाः सततं तर्पयेत् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, विद्वान व राजाचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंतरिक्षात वृष्टी करून संपूर्ण जगाला तृप्त करतो तसे राजाने न्याययुक्त पुरुषार्थ करून ऐश्वर्य वाढवावे व प्रजेला सतत तृप्त करावे. ॥ १ ॥